Thursday, September 06, 2012

खिचड़ी...

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी... कहानी याद है, लेकिन यह भूल गया की कहाँ पढ़ी थी... शायद नंदन या पराग में प्रकाशित हुई थी...

रामू गाँव से शहर जाने लगा तो उसकी माँ बोली, "अगर कभी पेट ख़राब हो जाए तो खिचड़ी खा लेना"... 

यह सोच की कहीं नाम भूल न जाये, रामू "खिचड़ी... खिचड़ी..." जपने लगा...

रास्ते में पत्थर से ठोकर लगी तो "खिचड़ी" की जगह उसके मुहं से "खा चिड़ि" निकलना शुरू हो गया... 

"खा चिड़ि" बोलते हुए एक खेत से निकला तो वहां के किसानो ने उसकी जम के पिटाई करी... बोले की चिड़ि कहीं फसल न खा जाए, इस लिए हम सारे यहाँ चिड़ि को उड़ा रहे है की और तू उन्हें बुला के कह रहा है की "खा चिड़ि" ... अब से तू सिर्फ बोलेगा "उड़ चिड़ि"...

मार खा के रामू अब "उड़ चिड़ि" जपने लगा... तभी एक बहिलये ने उसको पकड़ लिया और करी उसकी खूब धुनाई... बोला की मैं यहाँ पक्षियों को फांसने के लिए जाल बिछा के छुपा हुआ हूँ और तू गा रहा है "उड़ चिड़ि"... अब से तू सिर्फ बोलेगा "आते जाओ फसते जाओ"... 

रामू ने "आते जाओ फसते जाओ" जपना शुरू किया... तभी वहां से निकल रही एक डाकुओं की टोली ने उसे पकड़ लिया और उस की खूब पिटाई करी... पिटाई करने के बाद जब डाकू जाने लगे तो उनके सरदार ने रामू को ख़बरदार किया, "आइन्दा कभी "आते जाओ फसते जाओ" बोला तो मार-मार के उसकी खिचड़ी बना देंगे... 

रामू यह सुन के ख़ुशी से चिलाने लगा, "खिचड़ी... खिचड़ी... यह ही तो कहा था माँ ने... "

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